A Man from Motihari: a book review

Photo credit: arun jee

Yesterday I finished reading A Man from Motihari, a novel by Abdullah Khan, published recently by Penguin. I had picked up the book after going through its review in the Hindu.

The novel tells the gripping tale of a man from Motihari, the birthplace of the great English author George Orwell. Motihari is a small town situated about 150 kilometers north of Patna in Bihar, India. Interestingly this man named Aslam Sher Khan was born exactly in the same house where Orwell was born.

Aslam hails from a lower middle class family in Motihari. And it is due to his education that he rises the ladder of success. He gets a white collar job as a banker in a public sector bank. Moving from one Indian town to another for his job and receiving setbacks like divorce and separation from his daughter and family he reaches Los Angeles in the US where he meets Jessica, the love of his life. Jessica is a Hollywood actor.

Aslam’s story coincides with the story of today’s India. The novel is a document of the country’s political developments since the demolition of the Babri Masjid in the nineties. Aslam was only a child then. He observes the changes that are taking place in the country over the years. Being a Muslim he has himself been a victim of these changes on various occasions in his locality, office or other public places. Aslam is also a survivor of the Gujarat riots in 2002. He has had nightmarish experiences of those riots. It hurts him to see his secular country gradually turning into a theocratic state.

The novel seeks to reveal that Islam as a religion is not a monolith. It is a congregation of a large number of its followers divided into sects and subsects who may be at war with one another at various levels. These differences pop up in the story particularly during the love affair between Farooque and Mahrukh. Their love didn’t have the approval of Mahrukh’s family because Farooq Ansari was from a lower caste, a Julaha, while Mahrukh was from a higher caste. The novel also tries to depict that just as in other religions the majority of the people in Islam are peace loving.

Though the novel has been written from the perspective of its main character, Aslam Sher Khan, and it delves deeper into the undercurrents of his community and society, it also seeks to bust the stereotypes about Hindus and Christians through its characters and story.

It’s a strange coincidence that just before taking up this novel I had gone through a novel in Hindi titled Vaishalinama. And I feel tempted to convey that apart from the obvious difference in the language I observe a lot of similarities between the two. Both try to portray the problems of the contemporary age. A Man from Motihari deals with interreligious issues through a story of today, while Vaishalinama focuses on the inter caste ones through an allegorical story of the ancient age. They both try to show how some people can draw political power in a state by manufacturing false narratives. In one the narratives are about religions, in the other they are about castes.

However there is one stark difference between the two novels. In Vaishalinama the author Prabhat Praneet has the solution to the problems in the society but in A Man from Motihari the problems seem insoluble. I can understand the author Abdullah Khan’s predicament. Probably he wants to remain loyal to the reality of today.

We should feel happy, however, that in today’s post truth age when attempts are being made to manipulate and erase the facts of the past and the present the authors like Abdullah Khan and Prabhat Praneet are taking recourse to fiction to reveal those facts.

What a coincidence! Both the authors belonging to the same region of Bihar have written novels having similar themes and about the same time. One in Hindi and the other in English.

वो युवक जिसने पेरिस में अपनी शादी रचाई होगी

Photo credit: arun jee

मेरे मन में पेरिस से जुड़ी कहानियों की होड़ मची है। एक कहानी कह रही है मुझे निकालो, तो दूसरी कह रही मुझको कहो। कल देर रात हम फ्रांस में समुद्र पर बसे एक शहर की यात्रा से लौटे। वहां के मनोरम दृश्य और उनसे जुड़ी घटनाएं मन पर हावी थीं। पर अचानक आज सुबह उस लड़के की याद आ गई जो पिछले सप्ताह पेरिस की यात्रा के दौरान हवाई जहाज में मिला था।

मस्कट से पेरिस आने वाले जहाज में जब हम सवार हुए तो मेरे ठीक बगल वाले सीट पर एक युवक आकर बैठ गया। उसकी उम्र होगी पच्चीस से तीस वर्ष के बीच। कद-काठी मेरे ही इतनी। बैठते ही मुझे देखकर मुस्कुराया।

मुझे काफी तसल्ली मिली। क्यों कि इस यात्रा में अभी तक जितने भी यात्री मिले थे उनसे मेरा कोई आदान-प्रदान नहीं हुआ था। सभी अपने ही धुन में मस्त। ज्यादातर लोग अपने मोबाइल पर झुके हुए। ये कुछ अलग लग रहा था।

दिल्ली से पेरिस की विमान यात्रा में ये हमें दूसरे जहाज में मिला था। पहले जहाज से हम मस्कट उतरे थे। फिर दूसरे जहाज से पेरिस के लिए रवाना हुए। दूसरा पहले की अपेक्षा काफी बड़ा था। उसकी हरेक पंक्ति में नौ सीटें थीं। और प्रत्येक तीन सीट के बाद आने जाने का एक रास्ता। मतलब उसमें आने-जाने के दो रास्ते थे। जहाज में बने इस तरह के रास्ते को अंग्रेजी में आइल कहते हैं। हमारी तीन सीटों वाली पंक्ति दो रास्तों के बीच अवस्थित था। और मेरी सीट उन तीनों के भी बीच में। मेरी बायीं ओर बन्दना थीं और दायीं ओर वह युवक।

ज्यादा बोलना, सामने वाले से सवाल करना या फिर बिना पूछे कोई जानकारी दे देना। ये सब मेरी आदतों का हिस्सा रहा है। शायद अपने पेशे का प्रभाव है। पर आजकल कोशिश कर रहा हूं कि इन आदतों को बदलूं। कम बोलूं, ज्यादा दूसरे लोगों की बातों को सुनूं। पेरिस की यात्रा की तैयारी के लिए मैंने इसका खास ध्यान रखा था। परन्तु उस युवक की मुस्कुराहट ने मुझे उत्साहित कर दिया था। बात करने के लिए। उसके बारे में जानने के लिए।

जहाज के उड़ान भरते ही मैंने उससे पूछा कि आप पेरिस जा रहे हैं? हालांकि इस सवाल का कोई मतलब नहीं था। क्योंकि जहाज का पड़ाव पेरिस ही था। इसके सभी यात्री पेरिस ही जा रहे थे। पर इसके अलावा मुझे और कोई सवाल उस वक्त नहीं सूझा। वैसे भी पहली बातचीत में नाम वगैरह पूछना मुझे अटपटा लग रहा था। उसने कहा हां। आगे बातचीत में उसने बताया कि वो पेरिस पहली बार जा रहा है। हमारी बातचीत अंग्रेजी में हो रही थी। और उसके अंग्रेजी बोलने के लहजे से मैंने अनुमान लगाया कि वह भारत के किसी दक्षिणी प्रदेश से हैं।

कुछ ही देर में जहाज कर्मी खाना लेकर आ गए। मुझे भूख लग चुकी थी। पर पहले राउंड में उन्होंने केवल कुछ लोगों को भोजन परोसा। उसमें बन्दना एक थीं। उन्हें मिला शाकाहारी पास्ता। गरम-गरम पास्ता की थाली को देखकर भूख और बढ़ गई। मैंने अपना नाम मांसाहारियों में लिखवाया था। इसलिए लगा कि मुझे बाकी यात्रियों के साथ दूसरे राउंड में मिलेगा।

पर दूसरे राउंड में जिन लोगों की बारी आई उसमें वह युवक था, मैं नहीं। उसे मिला चावल-दाल। मेरी बायीं ओर था पास्ता और दायीं ओर चावल-दाल। मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था। खाना परोसने वाली महिला से पूछने पर मालूम हुआ कि सबसे पहले स्पेशल भोजन परोसा जाता है। फिर सामान्य। मेरे लिए यह बिल्कुल असामान्य बात थी। अबतक मैं जानता था शाकाहारी भोजन एक सामान्य चीज है और मांसाहारी विशेष। पर एक अलग परिवेश में कैसे चीजें बदल सकती है, मुझे समझ आने लगा था। अपनी दायीं ओर चावल-दाल को देखकर थोड़ा कौतूहल भी होने लगा।

मैंने उससे कहा कि वाह एक मैं ही मांसाहारी निकला। आप दोनों तो शुद्ध शाकाहारी हैं। फिर मैंने जानना चाहा कि शाकाहारी में भी उसे चावल-दाल कैसे मिला जबकि बन्दना को पास्ता। उसने कहा कि टिकट कटाते वक्त ओमान के वेबसाइट पर उसने अपनी पसंद में केवल शाकाहारी ही नहीं, बल्कि विशेष रूप से ‘हिन्दू शाकाहारी भोजन’ को चुना था। तब मुझे समझ आया कि बन्दना, एक शुद्ध शाकाहारी, को पाश्चात्य शाकाहारी थाली क्यों मिली।

फिर उसने बताया कि वह मुस्लिम है और आॉफिस में उसके कई दोस्त हिन्दू हैं। प्रायः जब वह चिकन या मटन का कोई व्यंजन लेकर ऑफिस जाता है तो उसके हिन्दू दोस्त चावल-दाल लेकर आते हैं। वे एक दूसरे का भोजन शेयर करते थे। मांसाहारी भोजन खाकर वह थोड़ा बोर हो गया था। इसलिए जब विमान में उसे खाने को चुनना था तो उसने ‘हिन्दू शाकाहारी भोजन’ चुना। अच्छा, तो ये दोस्ती का असर है। सोचकर मुझे अच्छा लगा। तब-तक मेरी थाली भी आ गई। चिकन बिरयानी। और मैं उस पर टूट पड़ा।

बाद में उसने बताया कि वह एक कंपनी में मेकेनिकल इंजीनियर है। और उसके अनुसंधान विभाग में कार्यरत है। उसे नयी नयी मशीनों के बारे में जानने, उन पर काम करने में अच्छा लगता है। ग्राहकों की सुविधा के लिए नये मशीन इज़ाद करने, उसमें बदलाव लाने में मज़ा आता है।

मुझे लग रहा था कि पेरिस वह अपने कंपनी के काम से जा रहा है। पर उसने बताया कि पेरिस में उसकी शादी होने वाली है। लड़की और उसके परिवार के लोग पेरिस में ही रहते हैं। दो दिन बाद वहीं उनका निक़ाह होगा। टुकड़ों में हुई हमारी बातचीत अचानक बीच में रुक गई जब विमान में पेरिस के नजदीक आने की घोषणा हुई। फिर हमलोग अपने सामान को समेटने में लग गए। कुछ ही मिनटों में विमान नीचे उतरा। फिर हम अलग हो गए।

पेरिस पहुंचने के बाद उस युवक को मैं लगभग भूल सा गया था। अगले दिन से ही हमारे घूमने का कार्यक्रम शुरू हो गया और अभी भी चल ही रहा है। लेकिन दो दिन बाद गूगल न्यूज़ पर मैंने पढ़ा कि आइफ़िल टावर के ऊपर एक युगल जोड़ी ने विवाह रचाया। तब मुझे लगने लगा कि ये निश्चित रूप से उसी युवक के विवाह की ख़बर है। वैसे भी गूगल हमारे लोकेशन, हमारी बातचीत की पूरी ख़बर रखता है। और उसने इस ख़बर को मुझे इसलिए परोसा है क्योंकि उसे मालूम है कि मुझे इसमें दिलचस्पी होगी।

जिस दिन की ये ख़बर थी उसी के अगले दिन हमारा भी आइफ़िल टावर के ऊपर जाने का कार्यक्रम था। पढ़कर मुझे लगने लगा कि काश मैं भी उस वक्त आइफ़िल टावर पर मौजूद होता। मुझे पूरा विश्वास था कि वहां उपस्थित रहने पर उसकी शादी के वलीमे में श़रीक होने का न्योता जरूर मिलता। केवल एक दिन के अंतर से मैं छूट गया।

पेरिस में बच्चों ने मुझे कैसे ढूंढ़ा

Photo credit: Tanmay

बन्दना और बच्चों से अलग होने के बाद पेरिस के जिस मेट्रो स्टेशन पर मैं उतरा था उसका नाम है रिपब्लिक। यह पेरिस के एक महत्वपूर्ण स्मारक के बिल्कुल करीब है और उसका नाम भी रिपब्लिक (monument a la Republique) है। उसका निर्माण फ्रांसीसी क्रांति के 90वें सालगिरह के अवसर पर, 1879 में, हुआ था। लगभग तीन एकड़ के खुले मैदान के बीचो-बीच बने इस स्मारक के केन्द्र में एक महिला की विशाल मूर्ति है जो फ्रांस के गणतंत्र का प्रतीक है। उसके तीनों तरफ गणतंत्र के तीन महत्वपूर्ण स्तंभों, आज़ादी, समानता एवं भाईचारा, को दर्शाती तीन छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। रिपब्लिक मेट्रो स्टेशन का नाम इसी स्मारक से जुड़ा है।

पिछले पोस्ट में मैं बता चुका हूं कि रिपब्लिक स्टेशन पर जब मैं उतरा तो पूरी तरह से डिसकनेक्टेड था। मेरे पास सम्पर्क का कोई साधन नहीं था। हालांकि तन्मय की योजना थी कि हमारे पेरिस पहुंचने के साथ ही वह मेरे फ़ोन पर एक लोकल सिम डलवा देगा। महानगर में घूमने के लिए एक दो ऐप भी डाउनलोड करवाना था। पर तब तक ये सब हुआ नहीं था। इसलिए मेरे पास फोन जरूर था पर मैं न तो कॉल कर सकता था न ही मेसेजिंग। वे लोग भी मुझसे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते थे। भाषा की एक अलग ही समस्या थी। हां, मेरे फ़ोन में तन्मय के घर का पता जरूर था। और था मेरे पास मेरा फोरेक्स कार्ड। खर्च करने के लिए यूरो करेंसी।

स्टेशन पर मेरे पास पहला विकल्प ये था कि मैं सीढ़ियों से चढ़कर सामने वाले प्लेटफार्म पर उतर जाऊं। फिर मेट्रो पकड़कर एक स्टेशन पीछे जाऊं। वहीं जहां बन्दना, तन्मय, इंचरा और मेधा उतरे थे। हालांकि मेरे जैसे अजनबी के लिए यह भी एक चुनौती थी। क्यों कि रिपब्लिक एक मेट्रो जंक्शन है। यहां पांच अलग-अलग जगहों से आनेवाली लाइनें मिलती हैं। सही रास्ते को चुनकर, सही जगह पहुंचना मेरे लिए कठिन था। ऊपर रास्तों का एक जाल था। और सारे नाम फ्रेंच में लिखे हुए। खैर, अंदाज से किसी तरह मैं दूसरे प्लेटफार्म पर पहुंच गया और जैसे ही एक मेट्रो ट्रेन आई, मैं उस पर सवार हो गया। जो पहला स्टेशन आया उसका नाम था ‘आर्ट्स एंड मीटर्स’ (Arts et Meters)। वहीं उतर गया।

नाम के अनुरूप ही इस स्टेशन के दोनों प्लेटफार्म्स की दीवारों पर तांबे की सुन्दर कलाकृतियां हैं। असल में आर्ट्स एंड मीटर्स फ्रांस के एक सुप्रसिद्ध इंजीनियरिंग संस्थान का नाम है। उस संस्थान की तुलना अमरीका के गिने-चुने आईवी लीग विश्वविद्यालयों, इंग्लैंड के औकसफोर्ड, कैम्ब्रिज वगैरह से की जाती है। उसकी शाखाएं फ्रांस के सभी बड़े बड़े शहरों में हैं। उसमें लगभग 70000 विद्यार्थी पढ़ते हैं। ये मेट्रो स्टेशन उसी नामी संस्थान के नजदीक है। इसीलिए इसका नाम भी आर्ट्स एंड मीटर्स रखा गया है।

प्लेटफार्म पर उतरकर जब मैंने सामने वाले प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाई तो तन्मय, बन्दना, इंचरा मेधा किसी का कोई अता-पता नहीं था। मैंने सोचा कि शायद कुछ देर तक इंतजार करने पर उनसे भेंट हो जाएगी। वहां कुछ देर मैं यूं ही इधर उधर टहलता रहा। नज़र गड़ाए रखा कि उनमें से कोई एक भी दिख जाए। दो तीन गाड़ियां गुजर गईं। बहुत सारे यात्री आए और चले गए। पर वे नज़र नहीं आए। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने तीन मेट्रो ट्रेन के आने तक मेरा इंतजार किया था। उसके बाद वे मुझे खोजने निकल गए थे।

उन लोगों से अलग हुए अब एक घंटे से ज्यादा हो गया था। प्लेटफार्म पर यात्रियों की संख्या कम होने लगी थी और मेरी बेचैनी बढ़ने लगी थी। पिछली शाम तन्मय और इंचरा ने पेरिस में पाकेटमारी, ठगी और छीना-छपटी के कुछ किस्से सुनाए थे। उन्होंने इस बावत सावधानी बरतने के लिए हमें आगाह भी किया था। आने वाले दिनों में पाकेटमारों से भी हमारा सामना होने वाला था। पर उसकी कहानी किसी और दिन।

प्लेटफार्म पर जैसे जैसे रात गहरी होने लगी, मुझे लगने लगा कि अब मुझे कोई और उपाय ढूंढना होगा। और इसके लिए मेट्रो की गुफाओं से बाहर निकलना जरूरी था। पेरिस में धरती के अंदर मेट्रो नेटवर्क के रास्ते मुझे गुफाओं की तरह ही लगने लगे थे। अनजान, रहस्यमय और डरावने। एक डर यह भी था कि कहीं वहां कुछ समय के लिए अगर बिजली गुल हो जाय तो क्या होगा? इसलिए अब मुझे बाहर निकलने की छटपटाहट होने लगी। पर निकलें अगर तो किस रास्ते?

हिम्मत करके मैंने एक व्यक्ति से वहां से बाहर निकलने का रास्ता पूछा? मेरा ये सौभाग्य था उसने बड़ी विनम्रता और मुस्कुराहट के साथ अंग्रेजी में बताया कि जिस रास्ते के ऊपर Sortie लिखा हो उस रास्ते से आप बाहर निकल सकते हैं। Sortie एक फ्रेंच शब्द है जिसका अंग्रेजी में मतलब है exit और हिंदी में निकास द्वार। उस व्यक्ति का मिलना एक सौभाग्य इसलिए था कि आगे लोगों से मदद मिलने में काफी दिक्कत हुई। पेरिस में अजनबियों से प्रायः लोग परहेज करते हैं।

खैर उस सज्जन की बात को ध्यान में रखते हुए मैं मेट्रो के पाताल लोक से बाहर आ गया। थोड़ी राहत महसूस हो रही थी। खुले आसमान के नीचे खुली हवा में सांस लेकर। सामने एक रेस्तरां था। उसका नाम भी था आर्ट्स एंड मीटर्स। उसके किनारे से होकर मैं एक चौक के पास रुक गया। वहां मैंने कुछ राहगीरों से अंग्रेजी में मदद के लिए अनुरोध किया। मैं चाहता था कि कोई मुझे टैक्सी खोजने में मदद कर दे। पर किसी भी व्यक्ति ने मेरी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। फिर मैंने रोड पर किसी से मदद मांगने का इरादा छोड़ दिया। अब मैं सोचने लगा कि लौटकर मुझे आर्ट्स एंड मीटर्स नामक उस रेस्तरां में जाना चाहिए और वहीं रेस्तरां वाले से मदद लेनी चाहिए।

अभी मैं रेस्तरां के प्रवेश द्वार पर पहुंचने ही वाला था कि मेरे फ़ोन पर एक अनजान नंबर से फोन आया। मैंने जल्दी से फोन उठाया। उधर से सुकन्या की आवाज़ थी। मेधा की दोस्त। उसने पूछा कि मैं कहां हूं। बेंगलुरु से बात कर रही थी। उसके तुरंत बाद मेधा का, फिर इंचरा का वाट्सअप कॉल आ गया। इसके बाद मैंने उन्हें अपना लोकेशन शेयर कर दिया। आधे घंटे के अंदर तन्मय उस रेस्तरां में आ गया। मैं वहीं उसका इंतजार कर रहा था।

असल में आर्ट्स एंड मीटर्स स्टेशन पर जब मैं इन लोगों से अलग हुआ था तो कुछ देर इंतजार के बाद ये लोग तीन तरफ मुझे खोजने निकल पड़े थे। तन्मय और इंचरा मेट्रो के उसी लाइन पर दो विपरीत दिशाओं की ओर चल पड़े थे। मेधा और बन्दना घर लौट गए थे। रास्ते में मेधा ने बेंगलूर में अपनी दोस्त सुकन्या की मदद से मेरे फ़ोन पर इंटरनेशनल कॉल का रिचार्ज करवा दिया।

घर लौटने के बाद मुझे सभी लोगों से बहुत सारा ज्ञान मिला। मिलने की खुशी में हम डिनर के लिए एक वियतनामी रेस्तरां में गए।

वियतनामी रेस्तरां में मैं और बन्दना। फोटो क्रेडिट: इंचरा

अब जब भी हम बाहर घूमने जाते हैं तो बच्चे हमारे आगे और पीछे चलते हैं और गाते रहते हैं:

“तीतर के दो आगे तीतर
तीतर के दो पीछे तीतर…”

हालांकि अब पेरिस के रंग ढंग से हम धीरे-धीरे अवगत हो रहे हैं।

पेरिस की पहली शाम और मैं खो गया

Photo credit: arun jee

पेरिस की हमारी ये पहली शाम थी। हमने तय किया था कि सबसे पहले हम कुछ गर्म कपड़े खरीदेंगे। फिर सेन्न नदी के तट पर घूमेंगे। पुल से वहां के ऐतिहासिक स्थलों, इमारतों और शहर की गतिविधियों का अवलोकन करेंगे। सेन्न नदी पेरिस के ठीक बीच से होकर गुजरती है। यह शहर को दो भागों में बांटती है। इसकी चौड़ाई पटना में गंगा की चौड़ाई से काफी कम है। शायद गंडक के इतनी चौड़ी होगी। इसके ऊपर जगह जगह पर पुल बने हैं, जहां से शाम में शहर की सुन्दरता देखते बनती है।

योजना के मुताबिक शापिंग के बाद हम (बन्दना, इंचरा, तन्मय, मेधा और मैं) सेन्न नदी के ऊपर बने एक सुंदर पुल पर चढ़ गए। यह लूव्र म्यूजियम के लगभग सामने था। आसमान में बादल छाए हुए थे। बीच बीच में हल्की बारिश की बूंदें आ जा रही थीं। शाम ढल रही थी। चारो ओर शहर का नज़ारा अद्भुत था। पुल के दोनों ओर बड़ी बड़ी ऐतिहासिक इमारतें हमें लुभा रही थीं। लूव्र भी उनमें से एक था। पेरिस शहर के भवनों की कुछ खास विशेषताएं हैं। उनके बारे में अलग से किसी दूसरे पोस्ट में बात करेंगे।

पुल के नीचे नदी अपने निर्बाध गति से बह रही थी। पानी की सतह पर सैलानियों को लेकर बढ़ते हुए मोटरबोट सुंदर लग रहे थे। वैसे नदी का पानी साफ नहीं है। सुना है यहां की सरकार ने अगले ओलंपिक खेलों (2024) की शुरुआत होने तक सेन्न की सफाई को पूरा करने का लक्ष्य रखा है।

पुल पर बने फुटपाथ के दोनों ओर हम सभी फोटो खींचने में जुट गए। पर जल्द ही इस काम को इंचरा ने संभाल लिया। उसकी फोटोग्राफी काफी अच्छी है। उसने अलग अलग ऐंगल्स से बहुत सारे फोटो खींचे। सपनों के शहर में अब शाम हो रही थी। नदी के पश्चिमी ओर दूर एक छोर से आइफ़िल टावर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।

मेधा ने बताया कि फ्रांसीसी क्रांति के दौरान पास ही के एक महल में रानी मेरी ऐन्टोनेट को कैद करके रखा गया था। मेरी ऐन्टोनेट राजा लुई 16 की पत्नी थी। बाद में क्रांतिकारियों ने पूरी जनता के सामने गिलोटीन से रानी का सर धड़ से अलग कर दिया। राजा लुई को मौत की सजा इसके पहले ही मिल चुकी थी। पूरे लुई राजवंश का अंत हो गया।

फ्रांसीसी क्रांति पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल है। इसके बारे में कहा जाता है कि इसी ने लोकतंत्र के आधुनिक स्वरूप की नींव रखी है। पर ये जगह उस क्रांति से जुड़ा है। सोचकर सिहरन होने लगी। सोचने लगा कि आखिर रानी मेरी के ऊपर क्या इल्ज़ाम थे जो उन्हें इतनी बड़ी सजा मिली। मुझे इतना तो मालूम था कि राजा और उसके परिवार को मृत्यु दण्ड मिला था। पर इसकी विस्तृत जानकारी नहीं थी।

अंधेरा अब धीरे धीरे गहरा होने लगा था। पुल के ऊपर लगी बत्तियां जल उठी थीं। घर लौटने के लिए हम मेट्रो की ओर बढ़ने लगे। मेट्रो में मेरे ऊपर पेरिस की पहली शाम का काफी असर था। उन नज़ारों और उनसे जुड़ी कहानियां इतनी हावी थीं कि मैं खो गया। तन्मय, बन्दना, इंचरा और मेधा आगे खड़े थे। और मैं कोने में एक कुर्सी पर बैठा था। अचानक ट्रेन रुकी और वे लोग उतर गए। मैं भी जाने के लिए उठा। पर जब तक मेरी तंद्रा टूटी तब-तक शीशे का दरवाजा बन्द हो चुका था। मैं शीशे के अंदर से सबको बाहर प्लेटफार्म पर खड़ा देख रहा था। वे लोग विस्फारित नेत्रों से ट्रेन के डब्बे में जाते मुझे देखते रह गए। ये सब इतना जल्दी हुआ कि मुझे सोचने का भी मौका नहीं मिला।

आस-पास खड़े यात्रियों में से एक ने मुझे अगले स्टेशन पर उतरने का इशारा किया। तब-तक प्लेटफार्म पर गाड़ी पहुंच चुकी थी। मैं उतर गया। मेरे पास मोबाइल था, पर इंटरनेशनल कॉल की सुविधा नहीं थी। इंटरनेट भी नहीं। मोबाइल पर तन्मय के घर का पता मौजूद था। लेकिन फिर किसको बताएं? किस भाषा में बताएं? हिंदी किसी को आती नहीं, अंग्रेजी भी मुश्किल। फ़्रेंच मुझे नहीं आती। बहुत सारे सवाल मन में आ रहे थे। थोड़ी घबराहट भी होने लगी। पेरिस की ये मेरी पहली शाम थी और सचमुच मैं खो गया था।

बच्चों ने मुझे कैसे ढूंढ़ा? अगले पोस्ट में…

चाय (महाकाव्य) की महिमा

Photo credit: Rajiv Ranjan Prasad

पिछले सप्ताह मेरे व्हाट्सअप पर एक फोटो आया, जो नीचे संलग्न है। फोटो के नीचे लिखा था: चाय (महाकाव्य) पढ़िये। मेसेज भेजा था हमारे मुहल्ले के Rajiv Ranjan Prasad ने। फोटो को देखकर लगा कि राजीव जी ने अपने यहां मुझे चाय पे बुलाया है।

उसी दिन जब वे शाम को मिले तो उन्होंने ‘चाय (महाकाव्य)’ के बारे में जानकारी दी, जो एक पुस्तक है। उनके पिता डॉ सुरेश प्रसाद की एक रचना। ज्ञान गंगा दिल्ली से छपी है। अगले दिन राजीव जी ने सचमुच मुझे चाय के साथ चाय महाकाव्य की एक प्रति उपहार स्वरूप दिया।

क़िताब को देखकर, पढ़कर मैं अचंभित हूं। इसके ऊपर हिंदी साहित्य की महान विभूतियों की टिप्पणियां/समीक्षाएं हैं।

‘चाय (महाकाव्य)’ के ‘दो शब्द ‘ लिखते हुए सुमित्रानंदन पंत कहते हैं:

“मैं डॉ सुरेश प्रसाद को बधाई देता हूं कि उन्होंने अपनी ललित भावभीनी भाषा की प्याली में चाय रूपी औषधि भरकर लोगों का उपकार किया। सिंधु मंथन के कारण ही अमृत के बदले चाय की ही प्याली निकली होगी। इस काव्य को पढ़कर मुझे रत्तीभर संदेह नहीं रहा।”

गुज़रे ज़माने के उन महान साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की एक फेहरिस्त है जिन्होंने अपने शब्दों से इस पुस्तक को सुशोभित किया है। उनमें महादेवी वर्मा से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी, वियोगी हरि, हरिवंशराय बच्चन, राजेन्द्र अवस्थी, अशोक चक्रधर, काका हाथरसी, रामदयाल पांडेय… असल में लिस्ट काफी लंबी है।

महादेवी वर्मा लिखती हैं: “डॉ सुरेश प्रसाद ने महाकाव्य के लिए सर्वथा नवीन विषय चुना है। उससे अनेक व्यक्ति चौंकेंगे और अपने चायपाई आनंद भी प्राप्त करेंगे।” वैसे महादेवी जी के उन अनेक व्यक्तियों में मैं भी एक हूं।

रामदयाल पांडेय द्वारा लिखी गई तीन पृष्ठों की इसकी भूमिका का शीर्षक है ‘असाधारण महाकाव्य’।

पांच सौ से भी अधिक पृष्ठों वाली इस पुस्तक की महिमा अपरम्पार है। इसके बारे में और कहूं तो बस कहता ही चला जाऊं…

बहरा गणतंत्र: पाठकों की प्रतिक्रियाएं

नरेश शर्मा

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

मेरे मित्र अरुण जी, पूर्व प्राचार्य डीपीएस, जिन्हे मैं काफी पहले से जानता हूं। प्राचार्य और प्रोफेसर तो मेरे अनेकों मित्र हैं, पर अरुण जी थोड़ा हट कर हैं।

उन्होंने एक अंग्रेजी कविता संग्रह, डेफ रिपब्लिक, का हिंदी में अनुवाद किया है। शीर्षक है बहरा गणतंत्र। अमरीकी कवि इल्या कामिंस्की के इस संग्रह में युद्ध की विभीषिका का चित्रण है। इसमें दिल को झकझोरने बाली रोचक कहानी है। डेफ रिपब्लिक के रचयिता यूक्रेनी मूल के हैं।

वर्तमान में यूक्रेन और रूस युद्ध की विभीषिका का अंदाजा इस पुस्तक से लगाया जा सकता है। जिस तरह यूक्रेन में आजकल मिसाइल और बम के हमलों से रिहायशी इलाकों में हजारों निर्दोष लोग, गर्भवती महिलाएं सहित और बच्चे मारे जा रहे हैं, उसी तरह के एक युद्ध का चित्रण इस बहरा गणतंत्र में किया गया है। जिसमें अपने ही देश की सेना थिएटर देख रही पब्लिक पर गोलियां चलाती है और लोगों को भागने को कहती है। इसमें एक बहरे बालक की हत्या हो जाती है। बच्चे का शव सड़क के किनारे पड़ा है।

अल्फोंसो और सौन्या की नई शादी हुई है। अल्फोंसो अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है। उनकी एक नन्ही बच्ची है।पत्नी को गोली लग जाती है। बच्ची अनुष्का वहीं पड़ी है। यह एक हृदयबिदारक दृश्य है।

युद्ध की ऐसी बहुत सारी विभीषिकाओं को इस पुस्तक में चित्रित किया गया है।

पुस्तक खरीदने और पढ़ने योग्य। ———————————–

रीता सिंह

रीता सिंह द्वारा हस्तलिखित

आज बहरा गणतंत्र पढ़ा। यूक्रेनी-अमरीकी कवि इल्या कामिंस्की का कविता संग्रह। पटना के अरुण जी द्वारा हिन्दी में अनुवादित है।

युद्ध त्रासदी झेल रहे देशवासियों की पीड़ा का वर्णन कवि ने कुछ अलग ढंग से किया है। सिपाहियों की बर्बरता का विरोध पूरा प्रदेश मूक बधिर बनकर करता है। एक मूक बधिर बच्चे, पेट्या, की निर्मम हत्या स्थानीय लोगों की आत्मा को झकझोर देती है।

यूं तो (इस) कविता संग्रह में अनेक कविताएं हैं पर मुझे पूर्वाद्ध की कविताएं ज्यादा संवेदनशील लगीं। उत्तरार्द्ध की कविताएं शायद हमारी संस्कृति से थोड़ा हटकर हैं। इसलिए उतनी दिल के करीब नहीं लगीं।

“साहित्य समाज का दर्पण होता है”। पहले कहीं पढ़ा था। कामिंस्की की कविताओं ने इसे प्रमाणित किया (है)।

अरुण जी को कोटिशः धन्यवाद। जिन्होंने इस महाकाव्य का हिंदी रूपांतरण बखूबी किया है। तभी तो हम इससे रूबरू हो पाये।

इस संग्रह का पूरा सार मेरी समझ में ये चार पंक्तियां हैं:
“ऐसा नहीं है कि मेरे कान अब हो गए हैं निर्बल बल्कि हमारा मौन हमें बनाता है और भी प्रबल।”। ———————————-

दीपनारायण प्रसाद

इल्या कामिंस्की द्वारा लिखित कविता जो अंग्रेजी में है उसका हिन्दी अनुवाद कर आपने हम जैसे हिन्दी विद्यालयों में पढ़ें पाठकों के लिए इसे समझना आसान कर दिये। इसके लिए आप का बहुत बहुत आभार।

पूरे विश्व में अनेक कालखंडों में यह देखा गया है कि जब जब सत्ता की कुर्सी पर बैठने वाला शासक तानाशाह हो जाता है, राजा बहरा हो जाता है तब तब जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को दबाया जाता है। जब लोकतंत्र बहरा हो जाता है तब लेखकों पत्रकारों या सत्ता से सवाल करने वालों पर कहर बरसाया जाता है। जैसा कि बहरा गणतंत्र कविता को पढ़ने से ज्ञात होता है। इसके भुक्तभोगी लेखक इल्या भी है।आज बहरा गणतंत्र की आहट अपने देश में भी दिखाई पड़ता है।

कुल मिलाकर एक बार पुनः आप को बहुत बहुत बधाई। आशा है जल्द ही आपका अगला हिन्दी अनुवाद हमें उपलब्ध हो पायेगा।

अर्चना सिंह

फोटो क्रेडिट: विमलेश चाहर

हाल में एक बहुत ही अच्छी पुस्तक “बहरा गणतंत्र” पढ़ने का सौभाग्य मिला। ये यूक्रेनी-अमेरिकी कवि इल्या कमिंस्की के कविता संग्रह “डेफ रिपब्लिक” का हिंदी अनुवाद है।

इस कविता संग्रह का अनुवाद अरुण जी ने इतनी बखूबी किया है कि कविता की मौलिकता खोने का कहीं भी अहसास नही हुआ।


बहरा गणतंत्र की कविताएं तानाशाही शासन के अंतर्गत तड़पते गणतंत्र को दर्शाती हैं। इसे कवि ने नाम दिया है ‘डेफ रिपब्लिक’। हिंदी में ‘बहरा गणतंत्र’।

यह एक गणतंत्र, एक देश की कहानी है। इसके शुरु में पेट्या नामक बालक को जब गोली मार दी जाती है तो उसकी बहन सौन्या के विलाप पर कवि लिखते है:

“उसकी हृदयविदारक चीख से
आसमान में सुराख हो जाता है…
सौन्या के खुले मुख में हम देखते हैं
सम्पूर्ण राष्ट्र की नग्नता…”

कितनी मार्मिक और दिल को झकझोर देने वाली पंक्तियां हैं।

एक अन्य काव्यांश में:

एक बुद्धू लड़का फूसफुसाता है… “बधिरता जिंदाबाद…” और सैनिकों पर थूकता है…

ये शब्द सैनिकों के खिलाफ लोगों का गुस्सा और विरोध की चरम सीमा को दर्शाते हैं।

इस पुस्तक में ऐसी बहुत सारी कविताएं हैं जो दिल को छूती हैं…विवशता का अहसास कराती हैं।

मन को मथने वाले इस कविता संग्रह के लिए कवि को साधुवाद। अरुण जी का अनुवाद भी काबिले तारीफ़ है। उनके अनुवाद ने कविता की आत्मा को जीवित रखा है।

इल्या कमिन्स्की का काव्य-लोक: प्रेमकुमार मणि

लेखक प्रेमकुमार मणि (दाएं) एवं अरुण जी

मेरे नए मित्र अरुण जी (अरुण कमल नहीं) ने इल्या कमिन्स्की और उनकी कविताओं के बारे में जब पहली बार बात की थी, तभी से मैं इस कवि के बारे में उत्सुक था। ‘मगध’ के दूसरे अंक में अरुण जी का इस कवि पर लिखा गया एक लेख और उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद प्रकाशित भी किए थे। अभी हाल में यह देख कर अतीव प्रसन्नता हुई कि अरुण जी द्वारा अनूदित इल्या कमिन्स्की के काव्य-संकलन ‘डेफ रिपब्लिक’ का हिंदी-अनुवाद ‘बहरा लोकतंत्र’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हो गया है। तीन रोज पहले जब इस किताब के साथ वह आए तब शाम सुहानी हो गई। चाय पर हमलोग देर तक इस कवि और उसकी दुनिया पर बात करते रहे।

इल्या कमिन्स्की अभी युवा हैं। अप्रैल 1977 के जन्मे। यूक्रेन के ओडेसा शहर में उनका जन्म हुआ, जो तब सोवियत समाजवादी रिपब्लिक का हिस्सा था। यहूदी परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें नस्ली भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा और अंततः उनके परिवार ने अमेरिका में बसने का निर्णय लिया। फिलहाल कवि न्यू जर्सी में रहता है और पेशे से अध्यापक है।

कामिन्स्की ने बचपन से मुसीबतें झेलीं हैं। पांच साल की उम्र में ही गलसुए (मंफ) की बीमारी हुई और गलत चिकित्सा के कारण सुनने की शक्ति बहुत कमजोर हो गई। नस्ली भेदभाव की परिस्थितियों ने भी उन्हें काफी परेशान किया। उन्होंने किशोर काल में ही सोवियत संघ के पतन और विघटन को देखा, जो एक बड़े वैचारिक मिथ्याचार का भी विघटन था। इन सब स्थितियों के बीच उनके मानस का निर्माण हुआ। शायद यही कारण है कि सत्ता और राजनीति के पाखण्ड को वह तनिक भिन्न नजरिए से देख पाते हैं। किसी रचनाकार के लिए अपने समय के पाखंड को देखना जरूरी होता है। जो रचनाकार इसे जितनी सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्त करता है, वह उसी अनुपात में महत्वपूर्ण होता है।

कामिन्स्की इसी रूप में हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी एक मुसीबत यह भी है कि उनमें अनेक राष्ट्रीयताएं और जुबानें समाहित या जज्ब हैं। वह यूक्रेनी भी हैं और अमेरिकी भी। थोड़े रूसी भी। वह उस जुबान (अंग्रेजी) में लिखते हैं, जिसे उनके परिवार में कोई भी ठीक से नहीं समझता। पता नहीं यह उनकी पीड़ा है या सुख; लेकिन हकीकत तो है।

कवि के अब तक दो संकलन प्रकाशित हैं। 2004 में पहला संकलन ‘डांसिंग इन ओडेसा’ है, दूसरा 2019 में प्रकाशित ‘डेफ रिपब्लिक’। डेफ रिपब्लिक के प्रकाशन ने उन्हें सुर्ख़ियों में ला दिया। यह ऐसे समय में आया जब दुनिया की राजनीति लगातार अमानवीय और अनुदार हो रही थी। क्या पश्चिम, क्या पूरब, हर तरफ सत्ता अधिक हिंसक और क्रूर होती दिख रही थी। दुनिया भर के सामाजिक दार्शनिकों ने इक्कीसवीं सदी में जिस लोकतान्त्रिक-उत्सव की परिकल्पना की थी, वे झूठे हो रहे थे। पीढ़ियों से अर्जित तमाम दार्शनिक और नैतिक फलसफे उत्तरसत्य के जबड़े के भीतर आ गए थे। लोकतंत्र चालबाजियों का खेल बनता जा रहा था। सत्ता अमानवीय, हिंसक, क्रूर और आक्रामक हो गई थी। ऐसे में कोई कवि यदि इन सबकी खबर नहीं लेता है तब वह कवि नहीं, मुर्दा शब्दों का व्यापारी है। इल्या इसी रूप में कवि हैं कि उन्होंने युग-सत्य का अनुभव किया है और उसे जुबान दी है; और शायद इसीलिए बीबीसी ने उन्हें दुनिया के उन बारह कलाकारों की सूची में रखा है जिन्होंने इस दुनिया में सार्थक बदलाव लाने की कोशिश की है।

‘बहरा गणतंत्र’ की कविताएं अलग-अलग भी अर्थवान हैं, लेकिन अपनी सम्पूर्णता में एक गीतिनाट्य की रचना करती हैं, जो है तो काव्य-रूप, किन्तु अपनी भयावहता से हमें स्तब्ध करती है। दो परिवर्तों में संयोजित इस काव्य-श्रृंखला की महाकाव्यता इस रूप में है कि यह एक मुकम्मल आख्यान भी रचती है, जिसका पहला हिस्सा यदि भयावह है तो दूसरे हिस्से में उम्मीद की किरणें भी हैं।

एक काल्पनिक लोक वैसेन्का है। युद्ध की विभीषिका से उत्पीड़ित स्थितियां। लोग कठपुतलियों के नाच देखने में निमग्न हैं कि एक फौजी जीप आती है और उससे एक अफसर उतर कर लोगों से कहता है कि सब यहाँ से भागो। अजीब-सी प्रतिक्रिया होती है। दर्शकों की भीड़ में एक बालक पेट्या भी है,जो बधिर है। वह अफसर को देख कर हँसता है और अपनी घृणा या प्रतिकार उस पर थूक कर करता है। पेट्या को गोली मार दी जाती है। बधिर बालक पहला शहीद होता है अपने प्रतिकार में। उसकी बहन सौन्या उसके माथे को चूमती है।

“हम चौदह लोग देखते हैं
सौन्या उस के ललाट को चूमती है
उसकी ह्रदय विदारक चीख से
आसमान में सुराख हो जाता है,
पार्क के बेंच, बरामदे की बत्तियां हिलने लगती हैं।
सौन्या के खुले मुंह में हम देखते है
पूरे देश की नग्नता।”

लेकिन यह शहादत जनता को एक सीख भी दे जाती है। जन प्रतिरोध एक शक्ल में सामने आता है। अगली सुबह जब लोग जगते हैं तब उन्होंने फौजियों को सुनने से इंकार कर दिया है। जनता ने अपने को सामूहिक तौर पर बधिर घोषित कर दिया है। ‘हम बहरे हैं’ के पोस्टर हर जगह चिपका दिए गए हैं। बहरापन छुआछूत की बीमारी बन जाती है- यह है जन प्रतिरोध का नया तरीका। गिरफ्तारियां होने लगती हैं, जुल्म ढाए जाते हैं, लेकिन हम आपको नहीं सुनते का आंदोलन चलता रहता है। इसी बीच प्रेम भी होता है, विवाह भी, कोई स्त्री गर्भ भी धारण करती है और फिर उसके नवजात शिशु को सैनिक अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं । जुल्म के नए-नए रूप उभर रहे हैं। और तब आता है दूसरा परिवर्त। मौमा गेल्या का थियेटर प्रतिरोध का एक ढांचा गढ़ता है। कठपुतलियों का डांस कराने वाला यह थियेटर ग्रुप सैनिकों को एक-एक कर आकर्षित करता है और फिर कठपुतलियों को नाचने वाले डोर से गला घोंट कर मार देता है। थियेटर की ये स्त्रियां ऐसी भूमिका निभाती हैं। हमारे देश भारत में स्वतंत्रता संग्राम में तवायफ़ों ने कुछ जगहों पर ऐसी भूमिका निभाई थी।

सब मिला कर इल्या कमिन्स्की का यह संकलन दुनिया का एक परिदृश्य हमारे सामने लाता है। कवि ने अनुभव किया है कि लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते। भारत में आज़ादी की लड़ाई के दौरान गांधी ने ऐसा ही अनुभव किया था। इसलिए उन्होंने एक अहिंसक संघर्ष की रूपरेखा बनाई थी। फ़ौज-फाटे का लोकतंत्र वास्तविक लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। क्योंकि फौजी ताकत की पहली पहचान यही होती है कि वह हमेशा निर्बलों पर आक्रामक होती है। अपने से मजबूत के बरक्श वह या तो आत्मसमर्पण करती है या रक्षात्मक स्थिति में आ जाती है।

इल्या जिस काव्य-लोक को सृजित करते हैं, वह भयावह अवश्य है लेकिन एक उम्मीद भी जगाती है कि जन प्रतिरोध किसी न किसी रूप में होगा।

मेरे मित्र अरुण जी ने हिंदी-भाषियों के बीच इल्या कमिन्स्की को पूरी किताब के साथ प्रस्तुत किया है, इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। हमारे देश का लोकतंत्र भी हिंसा के मुहाने पर खड़ा है। सत्ता अपनी पूरी नग्नता और क्रूरता के साथ हाजिर है, तो प्रतिपक्ष अपनी पूरी मूर्खता के साथ। 1970 दशक के बिहार आंदोलन के दौरान कवि नागार्जुन ने एक रूपक सृजित किया था –

“इधर दुधारू गाय अड़ी थी
उधर सरकसी बक्कर था।”

कुछ वैसा ही परिदृश्य आज भारत में है। राजनीतिक चेतना शून्य है। कोई धर्म-मजहब के त्रिशूल-फरसे के साथ खड़ा है, तो कोई जाति के कटार-चाक़ू के साथ। लेकिन हमारे देश का कोई कवि इल्या की तरह का काव्य-प्रतिरोध क्यों नहीं गढ़ रहा? इस पर हमें सोचना होगा। फिलहाल हम इल्या के इस काव्य -लोक से कुछ सीख तो ले ही सकते हैं। हाँ, काव्य को महज विनोद मानने वाली जमात निराश हो सकती है।
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बहरा गणतंत्र: इल्या कमिन्स्की (English)
अनुवाद: अरुणजी (हिन्दी)
प्रकाशन: पुस्तकनामा (www.pustaknaama.com)

रेणु की कितने चौराहे: एक समीक्षा

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

फणीश्वर नाथ रेणु की कितने चौराहे एक प्रेरणादाई उपन्यास है। एक बालक के बड़े होने की कहानी, जिसमें परिवार, समाज और देश बराबर के भागीदार हैं। इस उपन्यास के लिए रेणु ने हमारे देश के एक महत्वपूर्ण काल खंड को चुना है। 1930-1942 का समय जब अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी की भूमिका काफी अहम हो गई थी।

मनमोहन एक किसान का होनहार लड़का है जो गांव के स्कूल से अररिया शहर पढ़ने जाता है। एक अबोध बालक के लिए नया स्कूल, नये लोग और नयी संस्कृति से तालमेल बिठाने में शुरुआत में कुछ दिक्कत होती है। पर जल्द ही वह अपनी सूझबूझ और प्रतिभा के बल पर शिक्षकों एवं दोस्तों के बीच अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो जाता है। पढ़ाई में वह हमेशा अव्वल स्थान पाता है। पर उसकी पढ़ाई केवल किताबों तक ही सीमित नहीं है। वह उन सारी गतिविधियों में सक्रिय होने लगता है जो उस वक्त समाज और देश को बेहतर बनाने की दिशा में चल रहे थे। चाहे वो जरूरतमंदों की मदद हो, भूकम्प पीड़ितों की सेवा या अंग्रेजी हुक़ूमत का विरोध। इन सबकी प्रेरणा के श्रोत हैं महात्मा गांधी। हालांकि वे उपन्यास में बस एक बार ही प्रकट हुए हैं। एक बहुत छोटे अन्तराल के लिए।

मनमोहन जो गांव में मुनि जी और और शहर में मोना के नाम से जाना जाता है, इस उपन्यास का मुख्य पात्र है। पर उसके अलावा उपन्यास के और भी कई पात्र हैं जिनकी भूमिकाएं महत्वपूर्ण है। जैसे प्रियोदा, काका, बाबू जी, शरबतिया, नीलू इत्यादि।

भारत की आज़ादी की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास में एक आदर्श समाज के निर्माण का सपना है। और उस सपने को साकार करने की चाहत। रेणु उस वक्त यह भलीभांति जानते थे कि हमारा समाज जाति, धर्म, और आर्थिक विषमताओं जैसे मुद्दों से जूझ रहा है। उन्हें यह भी मालूम था सामाजिक समरसता को बरकरार रखते हुए अंग्रजों के खिलाफ लड़ना कितना कठिन है। उपन्यास के उत्तरार्ध में हिन्दू मुसलमान के बीच हुए दंगों और उनमें हफ़ीज साहब और सूर्यनारायण के बलिदान का वर्णन हमें 1940 के आसपास के दंगों की याद दिलाता है। इसी अध्याय में गणेश शंकर विद्यार्थी का भी जिक्र है, जो 1931 में कानपुर के दंगों की बलि चढ़ गए थे। समाज के इन अंतर्विरोधों से रेणु पूर्णतया अवगत थे। तभी उन्हें गांधी के विचार उपयुक्त लगते थे।

रेणु ने इस उपन्यास में बच्चों की शिक्षा का एक नमूना भी प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने किताबों के अलावा समाज, देश और संस्कृति से जुड़ी गतिविधियों को शामिल करने पर बल दिया है। उपन्यास में हम देखते हैं कि कैसे मुख्य पात्र मनमोहन विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक क्रियाकलापों में नियमित रूप से भाग लेता है और कैसे उसके विचार परिपक्व हो रहे हैं।

उपन्यास का शीर्षक, कितने चौराहे, अपने आप में काफ़ी महत्वपूर्ण है। मुख्य पात्र मनमोहन के जीवन में कई चौराहे आए और प्रायः उसने अपने लिए सही मार्ग ही चुना। चाहे वह पढ़ाई का हो या सच्चाई का, प्रेम का हो या सेवा का। रेणु ने इस उपन्यास में हमें एक कसौटी भी दी है। उनकी दृष्टि में समाज में प्रेम, भाईचारा के बिना हमारे विकास की यात्रा अधूरी है।

रेणु की इस कृति के बारे में और भी बहुत कुछ लिखने की इच्छा हो रही है। जैसे कि उनकी भाषा, उनके प्रयोग, ध्वनियों या संगीत के प्रति उनकी सजगता के बारे में। पर मुझे मालूम है कि रेणु साहित्य पर पहले से ही बहुत कुछ मौजूद है। केवल एक और बात। मेरे हिसाब से उपन्यास का अंत थोड़ा और बेहतर हो सकता था।

रेणु साहित्य मेरे विश लिस्ट में वैसे भी सबसे ऊपर रहा है पर भाई शाहनवाज़ को विशेष धन्यवाद जिन्होंने मेरी इस इच्छा को पूरा करने में मेरी मदद की।

शीला राय शर्मा की खिड़की

फोटो क्रेडिट: अरुण

इन दिनों मेरी किताब है शीला राय शर्मा की ‘खिड़की’। एक कहानी संग्रह। हाल में आई है प्रभात प्रकाशन से। इसमें एक से बढ़कर एक कहानियों के सुंदर नमूने हैं। और मौजूद हैं इसमें जीवन और समाज के तेजी से बदलते परिवेश की झलकियां। कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि परिवार, देश और दुनिया पर शीला जी की पैनी नजर है और कहानियों को गढ़ने की अद्भुत कला।

पहली कहानी ‘खिड़की’, जो इस संग्रह का शीर्षक भी है, को पढ़ते ही मैं उनका मुरीद हो गया। कहानी शुरु होती है इसकी मुख्य किरदार, नीतू, के अमरीका से भारत लौटने से। सत्रह साल बाद वह अपनी मां से मिलने आ रही है।

विमान की लम्बी यात्रा में उसे घर, परिवार की बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। कि कैसे जब उसने अपनी मर्जी से शादी करने का फैसला किया था तो उसके पिता ने उससे अपना सारा रिश्ता तोड़ लिया था। शादी के बाद वह अपने पति के साथ अमरीका चली गई। इतने सालों बाद जब वह घर लौटकर आ रही है तो घर में उसकी मां अब अकेली बचीं हैं। पिता साल भर पहले चल बसे। भैया अपने परिवार के साथ बैंगलोर में रहता है। अचानक मिलने पर मां और बेटी दोनों भावविभोर हो जाते हैं। दोनों फूट-फूटकर रोने लगते हैं। पर इतने भावनात्मक जुड़ाव के बावजूद भी आखिर कौन सी ऐसी बात है जिसके कारण बेटी ने अमरीका जल्दी लौटने का फैसला कर लिया।

शीला जी ने इस कहानी को काफी बारीकी से बुना है। इसमें रिश्तों की गहराई और जीवन की सच्चाई, दोनों के टकराव को उन्होंने बखूबी पेश किया है। कहानी की अंतिम पंक्तियां, जब नीतू रिक्शे पर सवार, घर छोड़कर जा रही है, काफी मार्मिक हैं:

“इस घर के दरवाजे तो कब से मेरे लिए बंद हो चुके थे, अब वह खिड़की भी बंद हो गई, जिससे होकर मै जब नहीं तब चुपके से आ जाया करती थी।”

फोटो क्रेडिट: अरुण

दूसरी कहानी है ‘एक बार फिर’। कहानी की शुरुआत होती है हल्के फुल्के अंदाज में, जब मां का आगमन होता है शहर में, अपनी बेटी के घर। बच्चे खुश कि नानी के आने से घर के अनुशासन में थोड़ी ढ़ील मिलेगी। बेटी के लिए ये मौका है मां से गप्प करने का। उनसे रिश्तेदारों, पड़ोसियों के बारे में दिलचस्प किस्से सुनने का। छोटी छोटी बातों पर हंसने का। घर का काम खत्म करके चाय पर रोज बेटी अपनी मां से बातें करती।

एक दिन मां जब बातचीत की अपनी पोटली खोल रही हैं, तब अचानक इस कहानी में एक रोचक मोड़ आता है। धीरे धीरे रिश्तों के परत खुलने लगते हैं। इस कहानी का अंत काफी भावपूर्ण है, जब मां खुद बेटी बन जाती है। इस कहानी की एक और खासियत है कि यह विलुप्त हो रहे पारंपरिक एवं विस्तृत परिवार की कुछ ऐसी झलकियां पेश करता है जो नई पीढ़ी को, खासकर नगरीय परिवेश में पले पाठकों को, शायद काल्पनिक लगे।

किसी भी कहानी के महत्वपूर्ण तत्व होते हैं कथानक, किरदार, थीम, तकनीक, भाषा इत्यादि। अब किस कहानी में कौन सा तत्व कितना महत्वपूर्ण होगा, यह कहानीकार के ऊपर निर्भर करता है। कुछ कहानीकार कथानक को ज्यादा महत्व देते हैं तो कुछ किरदार, थीम या तकनीक को। शीला राय शर्मा के इस संग्रह की अगर बात करें तो पहली दो कहानियों में उन्होंने कथानक एवं किरदार दोनों को लगभग बराबर तरजीह दी है। पर दोनों को अगर सूक्ष्मता से देखें तो ज़ाहिर है कथानक बाजी मार लेता है।

पहली कहानी, खिड़की’, में नीतू का अपनी मां से मिलना, उनके साथ रहना, उन दोनों का प्रेम वगैरह सब कुछ ठीक चल रहा है। पर अचानक एक ऐसी बात सामने आती है कि सबकुछ बदल जाता है। और यहीं हमें समझ में आता है कि इस कहानी को किरदार नहीं, बल्कि कथानक नियंत्रित कर रहा है।

ऐसा ही कुछ होता है दूसरी कहानी, ‘एक बार फिर’, में। मां अपनी बेटी को अपने गांव घर की कहानियां सुना रहीं हैं कि अचानक एक दिलचस्प मोड़ आता है जो इस कहानी को काफी भावपूर्ण बना देता है।

पर इसके ठीक विपरीत शीला जी की तीसरी कहानी, ‘चिल्लर बहू’ में कथानक की अपेक्षा किरदार का पक्ष ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस कहानी में वह हरेक किरदार को सुकून से गढ़तीं हैं। पहले आतीं हैं ताई जी, फिर ताऊ जी। चिल्लर बहू सक्रिय होती है कुछ पृष्ठों के बाद। एक जमींदार के घर अपने काम से उसकी पहचान है। उसका कोई अपना नाम नहीं है। अपने पति, चिल्लर, के नाम से ही जानी जाती है, जो निहायत सीधा एवं ‘अकर्मण्य’ है। पूरी तरह से अपनी पत्नी पर निर्भर।

कहानी के अंत में चिल्लर बहू के व्यक्तित्व का नया पक्ष उभरकर आता है जब वह ताई जी से अपने पति के बाद मरने का आशीर्वाद मांगती है। वैसे तो पति के बाद मरने की उसकी यह कामना स्थापित सामाजिक मान्यताओं के ठीक विपरीत है। पर जब वह कहती है, “बहू जी, सोचकर देखो, मैं न रहूं तो इन्हें खाना कौन देगा? भूखों मर जाएंगे? …..” तब समझ में आता है कि चिल्लर के प्रति उसका प्रेम कितना गहरा है।

फोटो क्रेडिट: अरुण

इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है कि विषय का ज्ञान, जीवन का अनुभव, शिल्प की जानकारी वगैरह होना एक बात है पर इन सबको कथा की विधा में पिरोना बिल्कुल अलग। शीला जी इस फ़न में माहिर दिखती हैं। ऊपर मैंने केवल तीन कहानियों का जिक्र किया है। खिड़की में कहानियों की सूची लम्बी है और मेरे पढ़ने की यात्रा जारी। उत्सुकता बनी हुई है।

घने अन्धकार में खुलती खिड़की: ईरानी स्त्रियों के लोकतांत्रिक संघर्ष की दास्तां

फोटो क्रेडिट: अरुण

इन दिनों मेरी किताब है लेखक अनुवादक यादवेन्द्र की घने अन्धकार में खुलती खिड़की। इसी वर्ष सेतु से प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक ईरान में महिलाओं के अधिकारों के हनन के विरोध में लगातार उठतीं आवाजों का एक संकलन है। वैसी आवाजें जो संस्मरण, चिट्ठियां, सिनेमा, कहानियां, कविताएं एवं ब्लाग्स के माध्यम से महिलाओं ने व्यक्त किया है। ईरान की महिलाएं अपने हक़, अपनी आज़ादी के लिए लम्बे समय से संघर्षरत रही हैं। अनगिनत महिलाओं ने सजा पाईं, यातनाएं सही हैं, आज भी सह रही हैं। कइयों ने अपने जीवन भी कुर्बान कर दिए। उन्हीं की पीड़ा, उनके दर्द और उनके अथक प्रयास को समेटने की कोशिश है यादवेन्द्र की यह किताब, घने अन्धकार में खुलती खिड़की।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया एवं अफ्रीका के देशों में जब लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष तेज होने लगा तो ईरान भी उससे अछूता नहीं था। वहां के लोगों ने भी तत्कालीन राजा, मुहम्मद शाह पहलवी, के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ी। उस लड़ाई में सभी विचारधारा के लोग एक साथ थे: उदारवादी, कम्युनिस्ट, सेक्युलर, पुरुष, स्त्री, धर्म गुरु इत्यादि। पर कितनी बड़ी विडम्बना है कि वहां राजतंत्र का खात्मा तो हुआ लेकिन उसकी जगह 1979 में एक ऐसी सरकार सत्ता में आई जिसका आधार था धार्मिक कट्टरता और जो पिछली सरकार से भी ज्यादा नागरिक विरोधी, क्रूर एवं निरंकुश साबित हुई।

इसका सबसे ज्यादा असर ईरान की महिलाओं पर पड़ा। पचास, साठ, सत्तर के दशक में ईरानी महिलाएं को बहुत सारे अधिकार मिले हुए थे। उनके बाहर आने-जाने, कपड़े पहनने, नौकरी करने पर विशेष रोक-टोक नहीं था। उन्होंने शाह की सत्ता के विरोध में हुए आन्दोलनों में पुरुषों का साथ दिया था। पर नई सरकार के आने के बाद उनपर एकदम से वज्रपात हो गया। उनका जीवन कैदियों की तरह हो गया। या तो वे घरों में कैद़ कर दी गईं। या फिर बाहर, कपड़ों के अन्दर। कई ऐसी महिलाएं थीं जो शाह विरोधी आंदोलनों में भी जेल गईं और फिर 1979 में इस्लामिक गणतंत्र के आने के बाद भी। कई ऐसी भी थीं जिन्हें नई सरकार ने मृत्युदंड दिया। लेकिन इन सारी यातनाओं को झेलने के बावजूद महिलाओं ने अपना संघर्ष जारी रखा है। यादवेन्द्र की यह पुस्तक पिछले चालीस-पचास सालों से चल रही स्त्रियों की इस लड़ाई की दर्द भरी दास्तां है।

पुस्तक के पहले खंड में हैं ‘जेल संस्मरण’ जिसमें अलग अलग महिलाओं ने जेल में बिताए अपने पीड़ादायक अनुभवों को साझा किया है। नीचे मैं उनमें से केवल दो का जिक्र करना चाहूंगा।

तेहरान में जन्मीं शहरनुश परसीपुर एक लेखक हैं जिन्हें वहां की धार्मिक रूप से कट्टर सरकार ने उनके विचारों और लेखनी के लिए जेल में डाल दिया। 4 साल एवं 7 महीने जेल में व्यतीत करने के बाद वह अमरीका चलीं गईं। जेल में बिताए अपने उन पलों को याद करती हुई वह लिखतीं हैं कि एक बार वो रातभर हेवी मशीनगन के धमाकों की आवाज सुनती रहीं। कैदी साथियों ने बताया कि जेल के बाहर कैदियों को गोलियों से भूना जा रहा है। ‘अगले दिन अखबारों में 300 लोगों के नाम छपे थे।’ उस पूरे वाकए और ख़ासकर एक नाबालिग लड़की के बारे में सोचकर वह बताती हैं: “मेरे मन में हुकूमत के लिए कितनी घृणा, कितना गुस्सा पैदा हुआ इसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।”

शहला तलेबी एक समाजशास्त्री हैं जिन्हें 1979 की इस्लामिक क्रांति के पहले, शाह के जमाने में, और उसके बाद भी कई वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि प्रतिरोध में इतनी ताकत है कि जेल की अमानवीय परिस्थितियों में भी क़ैदी रचनाशीलता के नए माध्यमों को ढूंढ लेते थे। उनके जेल की कोठरियां इतनी छोटी एवं तंग थीं कि कैदियों के लिए अपना ज़ख़्मी हाथ पांव भी चलाना मुश्किल था। पर उस विषय परिस्थिति में भी वे अपनी रचनात्मकता के द्वारा अपनी आत्मा को बचाकर रखते थे। कंकड़-पत्थर, सिक्के, बटुए, चिट्ठियां जो भी मिल जाए उनमें वे अपनी कला, अपनी प्रतिभा को जीवित रखने की कोशिश करते थे। हालांकि जेल के पहरेदारों की पैनी निगाहें हमेशा ऐसे कार्यों में रुकावट डालने के नए नए तरीके ढूंढते रहते थे।

इन दोनों के अलावा भी अन्य कई महिलाएं हैं जो ‘जेल संस्मरण’ के इस खंड में हुक़ूमत की ज्यादती और क्रूरता की कहानियां सुनाती हैं।

इस किताब का दूसरा खंड, ‘चिट्ठी-पत्री’, भी कम पीड़ादायक नहीं है। इसकी शुरुआत होती है ‘इज़्ज़त ताबियां की वसीयत और चिट्ठी से’, जिसे पढ़कर तो मेरा दिल दहल गया।

इज़्ज़त ताबियां एक वामपंथी छात्र नेता थीं जो पहले शाह के विरोध में और बाद में धार्मिक हुकूमत के खिलाफ जी-जान से लड़ी थीं। 1982 में उन्हें गोलियों से उड़ा दिया गया। वो फ़ारसी के प्रमुख कवि माज़िद नफ़ीसी की पत्नी थीं। यहां मैं केवल उनकी एक चिट्ठी को साझा कर रहा हूं। इसे उन्होंने अपने शौहर के लिए लिखा था। इसके बाद है एक कविता जिसे उनके शौहर ने उनके कब्र को ढूंढते हुए लिखा था। दोनों काफी मार्मिक हैं:

इज़्ज़त ताबियां की चिट्ठी
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“मेरे प्यारे साथी (पति)

मेरा जीवन बहुत छोटा था और हमें साथ साथ रहने के लिए और भी कम समय मिल पाया। मेरी ख़्वाहिश मन में ही रह गई कि आपके साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताऊं… अब तो ये मुमकिन भी नहीं है। आपसे इतनी दूर खड़ी हूं पर यहीं से आपका हाथ पकड़ कर हिला रही हूं… और आपकी लंबी उम्र के लिए दुआएं कर रही हूं… हालांकि मुझे लग रहा है इस वसीयत की क़िस्मत में आप तक पहुंचना नहीं है।

उन सब को सलाम जिनसे पिछले दिनों में प्यार किया और अब भी करती हूं… और सदा-सदा के लिए करती रहूंगी। अलविदा…

इज़्ज़त ताबियां, 7 जनवरी 1982

फोटो क्रेडिट: अरुण

उनके शौहर की कविता का शुरुआती अंश
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निशान लगा ख़ज़ाना

फाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फासले पर…
है किसी पोथी का लिखा
ऐसे किसी ख़ज़ाने के बारे में?

ओ मिट्टी!
काश मेरी अंगुलियां छू पातीं तुम्हारी धड़कनें
या गढ़ पातीं तुमसे बरतन…

अफसोस मैं हकीम नहीं हूं
और न ही हूं कोई कुम्हार
मैं तो मामूली सा एक वारिस हूं
लुटाए-गवाएं हुए अपना सब कुछ…
दर-दर भटक रहा हूं तलाश में
कि शायद कहीं दिख जाए
वो निशान लगा हुआ ख़ज़ाना
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इज़्ज़त ताबियां की मृत्यु के बाद उनके पति माज़िद नफ़ीसी 1983 में घोड़े पर सवार होकर ईरान से भाग निकले। टर्की, फ्रांस होते हुए वे अमरीका पहुंचे और वहीं बस गए। वहां उनकी बहुत सारी कविताएं, लेख, संस्मरण, किताबें छपीं। वे एक जाने माने एक्टिविस्ट भी हैं जो ईरान और पूरी दुनियां में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में सतत् सक्रिय रहते हैं।
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जेल संस्मरण और चिट्ठी-पत्री के अलावा यादवेन्द्र की इस पुस्तक के और भी कई खंड हैं, जैसे सिनेमा, ब्लाग्स, कहानियां, कविताएं इत्यादि। ये ईरान की स्त्रियों के जीवन में व्याप्त घने अन्धकार से पाठकों का न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उम्मीद की एक खिड़की भी खोलती हैं। इन स्त्रियों के संघर्ष के बारे में पढ़कर, जानकर उनके बेहतर भविष्य के प्रति हमारा विश्वास और मजबूत होता है।

इस पुस्तक के बारे में हिंदी के जाने-माने कवि एवं साहित्यकार अरुण कमल की निम्नलिखित पंक्तियां मुझे बिल्कुल उपयुक्त जान पड़ती हैं। वे कहते हैं कि यादवेन्द्र की ‘घने अन्धकार में खुलती खिड़की ईरानी स्त्रियों के लोकतांत्रिक संघर्ष के सांस्कृतिक पक्ष का ज्वलंत दस्तावेज है जो संभवतः हिंदी में पहली बार उपलब्ध हो रहा है।’